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अ॒वर्म॒ह इ॑न्द्र दादृ॒हि श्रु॒धी न॑: शु॒शोच॒ हि द्यौः क्षा न भी॒षाँ अ॑द्रिवो घृ॒णान्न भी॒षाँ अ॑द्रिवः। शु॒ष्मिन्त॑मो॒ हि शु॒ष्मिभि॑र्व॒धैरु॒ग्रेभि॒रीय॑से। अपू॑रुषघ्नो अप्रतीत शूर॒ सत्व॑भिस्त्रिस॒प्तैः शू॑र॒ सत्व॑भिः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

avar maha indra dādṛhi śrudhī naḥ śuśoca hi dyauḥ kṣā na bhīṣām̐ adrivo ghṛṇān na bhīṣām̐ adrivaḥ | śuṣmintamo hi śuṣmibhir vadhair ugrebhir īyase | apūruṣaghno apratīta śūra satvabhis trisaptaiḥ śūra satvabhiḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒वः। म॒हः। इ॒न्द्र॒। द॒दृ॒हि। श्रु॒धि। नः॒। शु॒शोच॑। हि। द्यौः। क्षाः। न। भी॒षा। अ॒द्रि॒ऽवः॒। घृ॒णात्। न। भी॒षा। अ॒द्रि॒ऽवः॒। शु॒ष्मिन्ऽत॑मः। हि। शु॒ष्मिऽभिः॑। व॒धैः। उ॒ग्रेभिः॑। ईय॑से। अपु॑रुषऽघ्नः। अ॒प्र॒ति॒ऽइ॒त॒। शू॒र॒। सत्व॑ऽभिः। त्रि॒ऽस॒प्तैः। शू॒र॒। सत्व॑ऽभिः ॥ १.१३३.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:133» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:1» वर्ग:22» मन्त्र:6 | मण्डल:1» अनुवाक:19» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उत्तम मनुष्यों को किसकी निवृत्ति कर क्या प्रचार करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अद्रिवः) प्रशंसित मेघयुक्त सूर्य के समान वर्त्तमान (इन्द्र) उत्तम गुणों से प्रकाशित पुरुष ! आप (अवः) नीचे को मुख राखनेवाले कुटिल को (दादृहि) विदारो मारो (नः) हम लोगों को (शुशोच) शोचो, हमारे न्याय को (श्रुधि) सुनो और (द्यौः) प्रकाश जैसे (क्षाः) भूमियों को (न) वैसे (महः) अत्यन्त रक्षा करो, हे (अद्रिवः) प्रशंसित पर्वतोंवाले ! आप (हि) ही (भीषा) भय से (घृणात्) प्रकाशित के समान न्याय को प्रकाश करो और (भीषा) भय से दुष्टों को दण्ड देओ। हे (शूर) निर्भय निडर शूरवीर पुरुष ! (शुष्मिन्तमः) जिनके अतीव बहुत बल विद्यमान (अपूरुषघ्नः) जो पुरुषों को न मारनेवाले आप (उग्रेभिः) तीक्ष्ण स्वभाववाले (शुष्मिभिः) बली पुरुषों के साथ तीक्ष्ण शत्रुओं के (वधैः) मारने के उपायों से (ईयसे) जाते हो सो आप (त्रिसप्तैः) इक्कीस (सत्वभिः) विद्वानों के साथ ही वर्त्ताव रक्खो। हे (अप्रतीत) न प्रतीत होनेवाले गूढ़ विचारयुक्त (शूरः) दुष्टों को मारनेवाले आप (हि) ही (सत्वभिः) पदार्थों से युक्त होओ ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। धार्मिक पुरुषों को नीचपन की निवृत्ति और उत्तमता का प्रचार कर प्रशंसित बल की उन्नति के लिए शूरवीर पुरुषों से प्रजाजनों की अच्छे प्रकार रक्षा कर दश प्राण और एक जीव से दश इन्द्रियों के समान पुरुषार्थ कर यथायोग्य पदार्थों की वृद्धि प्राप्त करने योग्य है ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरुत्तमैर्नरैः किं निवार्य्य किं प्रचारणीयमित्याह ।

अन्वय:

हे अद्रिव इन्द्र त्वमवर्दादृहि नः शुशोच नोऽस्माकं न्यायं श्रुधि द्यौः क्षा नेव महो रक्ष। हे अद्रिवस्त्वं हि भीषा भयेन घृणान्नेव न्यायं द्योतयस्व भीषा दुष्टान् ताडय। हे शूर यः शुष्मिंतमोऽपूरुषघ्नस्त्वमुग्रेभिः शुष्मिभिः सह शत्रूणां वधैरीयसे स त्वं त्रिसप्तैः सत्वभिः सहैव वर्त्तस्व। हे अप्रतीत शूर त्वं हि सत्वभिः सम्पन्नो भव ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अवः) अधोमुखम् (महः) महत् (इन्द्र) (ददृहि) विदारय। अत्र श्नः श्लुः, तुजादीनामित्यभ्यासदीर्घः। (श्रुधि) शृणु। अत्राऽन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (शुशोच) शोच (हि) (द्यौः) प्रकाश इव (क्षाः) पृथिवीः (न) इव (भीषा) भयेन (अद्रिवः) प्रशस्तमेघयुक्त सूर्यवद्वर्त्तमान (घृणात्) दीप्तात् (न) इव (भीषा) भयेन (अद्रिवः) प्रशस्ता अद्रयः शैला विद्यन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ (शुष्मिन्तमः) बहुविधं बलं विद्यते यस्य स शुष्मिः सोऽतिशयितः (हि) खलु (शुष्मिभिः) बलिष्ठैः (वधैः) हननैः (उग्रेभिः) तीक्ष्णस्वभावैः (ईयसे) गच्छसि (अपूरुषघ्नः) पुरुषान्न हन्ति सः (अप्रतीत) यो न प्रतीयते तत्संबुद्धौ (शूर) निर्भय (सत्वभिः) विज्ञानवद्भिः (त्रिसप्तैः) एकविंशत्या (शूर) दुष्टहिंसक (सत्वभिः) पदार्थैः ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। धार्मिकैर्नीचतां निवार्य्य श्रेष्ठतां प्रचार्य्य प्रशस्तबलोन्नतये शूरवीरैः पुरुषैः प्रजाः संरक्ष्य दशप्राणैरेकेन जीवेन दशभिरिन्द्रियैरिव पुरुषार्थं कृत्वा यथायोग्या पदार्थवृद्धिः प्राप्तव्या ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. धार्मिक पुरुषांनी नीचता नष्ट करून उत्तमतेचा प्रचार करावा. प्रशंसनीय बल वाढविण्यासाठी शूरवीर पुरुषांकडून प्रजेचे रक्षण चांगल्या प्रकारे करावे. दहा प्राण व एक जीव यांच्या कडून दहा इंद्रियांसारखा पुरुषार्थ करून पदार्थांची यथायोग्य वृद्धी करावी. ॥ ६ ॥